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उच्चारणस्थानम्

 उच्चारण स्थानानि

संस्कृत वर्णमाला में पाणिनीय शिक्षा (व्याकरण) के अनुसार 63 वर्ण हैं। उन सभी वर्गों के उच्चारण के लिए आठ स्थान हैं। 

(1) उर, (2) कण्ठ, (3) शिर (मूर्धा), (4) जिह्वामूल, (5) दन्त, (6) नासिका, (7) ओष्ठ और (8) तालु।

इन उच्चारण स्थानों का विभाजन इस प्रकार से  किया जाता-



🠊1) कण्ठ-
‘अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः’ अर्थात् अकार (अ, आ), क वर्ग (क्, ख, ग, घ, ङ) और विसर्ग का उच्चारण स्थान कण्ठ होता है। कण्ठ से उच्चारण किये गये वर्ण ‘कण्ठ्य ‘ कहलाते हैं।)

🠊2) तालु-🍽
‘इचुयशानां तालु’ अर्थात् इ, ई, च वर्ग (चु, छु, त्, झ, ञ्), य् और श् का उच्चारण स्थान तालु है। तालु से उच्चारित वर्ण ‘तालव्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करने में जिह्वा तालु (दाँतों के मूल से थोड़ा ऊपर) का स्पर्श करती है।

🠊3) मूर्धा-
‘ऋटुरषाणां मूर्धा’ अर्थात् ऋ, ऋ, टे वर्ग (ट्, , ड्, ढ, ण), र और ष का उच्चारण स्थान मूर्धा है। इस स्थान से उच्चारित वर्ण ‘मूर्धन्य’ कहे जाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करने में जिह्वा मूर्धा (तालु से भी ऊपर गहरे गड्ढेनुमा भाग) का स्पर्श करती है।

🠊4) दन्त-🦷
‘नृतुलसानां दन्ताः’ अर्थात् लु, त वर्ग (त्, थ, द्, धू, न्), ल् और स् का उच्चारण स्थान दन्त होता है। दन्तर स्थान से उच्चारित वर्ण ‘दन्त्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करने में जिह्वा दाँतों का स्पर्श करती है।

🠊5) ओष्ठ-👄
‘उपूपध्मानीयानामोष्ठौ’ अर्थात् उ, ऊ, प वर्ग (प, फ, बु, भू, म्) तथा उपध्मानीय ( प, फ) का उच्चारणस्थान ओष्ठ होते हैं। ये वर्ण ‘ओष्ठ्य’ कहलाते हैं। इन वर्गों का उच्चारण करते समय दोनों ओष्ठ आपस में मिलते हैं।

🠊6) नासिका-👃
‘अमङ्णनानां नासिका च’ अर्थात् , म्, ङ, ण, न् तथा अनुस्वार का उच्चारण स्थान नासिका है। इस स्थान से उच्चारित वर्ण ‘नासिक्य’ कहलाते हैं। इन वर्षों के पूर्वोक्त अपने-अपने वर्ग के अनुसार कण्ठादि उच्चारण स्थान भी होते हैं। जैसे-क वर्ग के ‘ङ’ का उच्चारण स्थान तालु और नासिका, ट वर्ग के ‘ण’ का मूर्धा और नासिका, त वर्ग के ‘न्’ का दन्त और नासिका तथा प वर्ग के ‘म्’ का ओष्ठ और नासिका होता है।
नासिकाऽनुस्वारस्यं–अर्थात् अनुस्वार (:) का उच्चारण स्थान नासिका (नाक) होती है।

🠊7) ‘कण्ठतालु’ एदेतोः कण्ठतालु’ 
अर्थात् ए तथा ऐ का उच्चारण स्थान कण्ठतालु होता है। अत: ये वर्ण ‘कण्ठतालव्य’ कहे जाते हैं। अ, इ के संयोग से ए तथा अ, ए के संयोग से ऐ बनता है। अतः ए तथा ऐ के उच्चारण में कण्ठ तथा तालु दोनों का सहयोग लिया जाता है।

🠊8) कण्ठोष्ठ ‘ओदौतोः कण्ठोष्ठम्’ 
अर्थात् ओ तथा औ का उच्चारण स्थान कण्ठोष्ठ होता है। अ + उ = ओ तथा अ + ओ = औ बनते हैं। अतः इनके उच्चारण में कण्ठ तथा ओष्ठ दोनों का उपयोग किया जाता है। ये वर्ण ‘कण्ठोष्ठ्य’ कहलाते हैं।

🠊9) दन्तोष्ठ ‘वकारस्य दन्तोष्ठम्’ 
अर्थात् व् का उच्चारण स्थान दन्तोष्ठ होता है। इस कारण ‘व्’ ‘दन्तोष्ठ्य’ कहलाता है। इसका उच्चारण करते समय जिह्वा दाँतों का स्पर्श करती है तथा ओष्ठ भी कुछ मुड़ते हैं। अत: दोनों के सहयोग से वकार का उच्चारण किया जाता है।

🠊10) जिह्वामूल-जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्’ 
अर्थात् जिह्वामूलीय ( क ख) का उच्चारण स्थान जिह्वामूल होता है।

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