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नवमः पाठः

सूक्तयः



प्रश्न 1. एकपदेन उत्तरं लिखत-

(क) पिता पुत्राय बाल्ये किं यच्छति?
उत्तरम्-         विद्याधनम्

(ख) विमूढधीः कीदृशीं वाचं परित्यजति?
उत्तरम्-         धर्मप्रदाम्

(ग) अस्मिन् लोके के एव चक्षुष्मन्तः प्रकीर्तिताः?
उत्तरम्-         विद्वांसः

(घ) प्राणेभ्योऽपि क: रक्षणीयः?
उत्तरम्-         सदाचारः

(ङ) आत्मनः श्रेयः इच्छन् नरः कीदृशं कर्म न कुर्यात्?
उत्तरम्-         अहितम्

(च) वाचि किं भवेत्?
उत्तरम्-         अवक्रता

 

प्रश्न 2. स्थूलपदानि आधृत्य प्रश्ननिर्माणं कुरुत-

यथा- विमूढधी: पक्वं फलं परित्यज्य अपक्वं फलं भुङ्क्ते।
कः पक्वं फलं परित्यज्य अपक्वं फलं भुङ्क्ते?

(क) संसारे विद्वांसः ज्ञानचक्षुभिः नेत्रवन्तः कथ्यन्ते।
उत्तरम्-                   के

(ख) जनकेन सुताय शैशवे विद्याधनं दीयते।
उत्तरम्-                   कस्मै

(ग) तत्त्वार्थस्य निर्णयः विवेकेन कर्तुं शक्यः।
उत्तरम्-                   कस्य

(घ) धैर्यवान् लोके परिभवं न प्राप्नोति।
उत्तरम्-                   कुत्र/कस्मिन्

(ङ) आत्मकल्याणम् इच्छन् नरः परेषाम् अनिष्टं न कुर्यात्।
उत्तरम्-                   केषाम्।

 

प्रश्न 3. पाठात् चित्वा अधोलिखितानां श्लोकानाम् अन्वयम् उचितपदक्रमेण पूरयत-

(क) पिता __________ बाल्ये महत् विद्याधनं यच्छति, अस्य पिता किं तपः तेपे इत्युक्ति: _________
उत्तरम्-                  पुत्राय, तत्कृतज्ञता।

(ख) येन __________ यत् प्रोक्तं तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः येन कर्तुं ___________ भवेत्, सः __________ इति _________

उत्तरम्-                   केनापि, शक्यः, विवेकः, ईरितः।

 

(ग) यः आत्मनः श्रेयः _________ “सुखानि च इच्छति, सः परेभ्यः अहितं” _________ “कदापि च न _________

उत्तरम्-
प्रभूतानि, कर्म, कुर्यात्।

 

प्रश्न 4. अधोलिखितम् उदाहरणद्वयं पठित्वा अन्येषां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत-
उत्तरम्-
(क) (क) विमूढधीः
(ख) परुषाम्
(ग) अपक्वम्।
(ख) (क) प्रभूतानि
(ख) अहितं कर्म
(ग) परेभ्यः।

 

प्रश्न 5. मञ्जूषायाः तद्भावात्मकसूक्ती: विचित्य अधोलिखितकथनानां समक्षं लिखत-

उत्तरम्-
(क) (i) विद्याधनम् सर्वधनप्रधानम्।
(ii) विद्याधनं श्रेष्ठ तन्मूलमितरद्धनम्।
(ख) (i) आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्।
(ii) आचारप्रभवो धर्मः सन्तश्चाचारलक्षणा:।
(ग) (i) मनसि एकं वचसि एकं कर्मणि एकं महात्मनाम्।
(ii) सं वो मनांसि जानताम्।

 

प्रश्न 6(अ).   अधोलिखितानां शब्दानां पुरतः उचितं विलोमशब्द कोष्ठकात् चित्वा लिखत-
उत्तरम्-
(क) अपक्वः
(ख) सुधीः
(ग) अकातरः
(घ) कृतघ्नता
(ङ) उद्योगः
(च) कोमला।

 

प्रश्न 6(आ).   अधोलिखितानां शब्दानां त्रयः समानार्थकाः शब्दाः मञ्जूषायाः चित्वा लिख्यन्ताम्-
उत्तरम्-

क्रम

शब्दाः

समानार्थक शब्दाः

(क)

प्रभूतम्

भूरि

विपुलम्

बहु

(ख)

श्रेयः

शुभम्

कल्याणम्

शिवम्

(ग)

चित्तम्

मनः

मानसम्

शिवम्

(घ)

सभा

संसद्

समितिः

परिषद्

(ड़)

चक्षुष्

नयनम्

लोचनम्

नेत्रम्

(च)

मुखम्

वदनम्

आननम्

वक्त्रम्


प्रश्न 7. अधस्ताद् समासविग्रहाः दीयन्ते तेषां समस्तपदानि पाठाधारेण दीयन्ताम्-
उत्तरम्-
(क) तत्त्वार्थनिर्णयः
(ख) वाक्पटुः
(ग) धर्मप्रदाम्
(घ) अकातरः
(छ) अहितम्
(च) महात्मनाम्:
(छ) विमूढधीः

 

योग्यताविस्तारः
(न परीक्षाकृते)


यहाँ संग्रहीत श्लोक मूलरूप से तमिल भाषा में रचित ‘तिरुक्कुरल’ नामक ग्रन्थ से लिए गए हैं। तिरुक्कुरल साहित्य की उत्कृष्ट रचना है। इसे तमिल भाषा का ‘वेद’ माना जाता है। इसके प्रणेता तिरुवल्लुवर हैं। इनका काल प्रथम शताब्दी माना गया है। इसमें मानवजाति के लिए जीवनोपयोगी सत्य प्रतिपादित है। ‘तिरु’ शब्द ‘श्रीवाचक’ है। तिरुक्कुरल शब्द का अभिप्राय है-श्रिया युक्त वाणी। इसे धर्म, अर्थ, काम तीन भागों में बाँटा गया है। प्रस्तुत श्लोक सरस, सरल भाषायुक्त तथा प्ररेणाप्रद हैं।

 

(क) ‘तिरुक्कुरल-सूक्तिसौरभम्’ इति पाठस्य तमिल मूलपाठः (देवनागरी-लिपी)
सोर्कोट्टम् इल्लदु सेप्पुम् ओरू तलैया उळूकोट्टम् इन्मै पेरिन्।
मगन् तन्दैवक्काटुम उद्रवि इवन् तन्दै एन्नोटान् कौमू एननुम सोक्त।
इनिय उळवाग इन्नाद कूरल् कनि इरूप्पक् काय कवरंदट्र।
कण्णुडेयर् एन्पवर् कट्रोर मुहत्तिरण्डु पुण्णुडैयर कल्लादवर्।
एप्पोरूल यार यार वाय् केटूपिनुम् अप्पोरूल मेय् पोरूल काण्पदरितु।
सोललवल्लन् सोरविलन् अन्जान् अवनै इहलवेल्लल् यारुक्कुम् असि्तु।
नोय एल्लाम् नोय् सेयदार मेलवान् नोय् सेययार नोय् इन्मै वेण्डुभव।
ओषुक्कम् विषुप्पम् तरलान् ओषुक्कम् उयिरिनुम् ओम्भप्पडुम्।

 

(ख) ग्रन्थपरिचयः
तिरुक्कुरल तमिलभाषायां रचिता तमिलसाहित्यस्य उत्कृष्टा कृतिः अस्ति। अस्य प्रणेता तिरुवल्लुवरः अस्ति। ग्रन्थस्य रचनाकालः अस्ति-ईशवीयाब्दस्य प्रथमशताब्दी।
अस्मिन् ग्रन्थे सकलमानवजातेः कृते जीवनोपयोगिसत्यम् प्रतिपादितम्।
तिरु शब्दः ‘श्री’ वाचकः। ‘तिरुक्कुरल्’ पदस्य अभिप्रायः अस्ति श्रिया युक्तं कुरल् छन्दः अथवा श्रिया युक्ता वाणी।
अस्मिन् ग्रन्थे धर्म-अर्थ-काम-संज्ञकाः त्रयः भागाः सन्ति। त्रयाणां भागानां पद्यसंख्या 1330 अस्ति।

 

हिंदी अनुवाद-

तिरुक्कुरल तमिलभाषा में रचित तमिल साहित्य की श्रेष्ठ रचना है। इसके रचयिता महाकवि तिरुवल्लुवर हैं। इस ग्रंथ का रचनाकाल प्रथम शताब्दी ईसवी है।
इस ग्रंथ में संपूर्ण मानव जाति के लिए उपयोगी ज्ञान प्रतिपादित किया गया है।
तिरु शब्द का अर्थ है, ‘श्री’। तिरुक्कुरल शब्द का अर्थ है ‘श्री’ से युक्त कुरल् छन्द अथवा श्रीयुक्त वाणी। इस ग्रंथ में धर्म-अर्थ-काम नामक तीन भाग हैं- तीनों भागों की श्लोक संख्या 1330 है।

 

(ग) भावविस्तार:
सदाचारः
किं कुलेन विशालेन शीलमेवात्र कारणम्।
कृमयः किं न जायन्ते कुसुमेषु सुगन्धिषु।।
आगमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्धते।।

हिंदी अनुवाद

उच्च कुल में जन्म लेने से व्यक्ति सम्मान प्राप्त नहीं करता। अच्छे चरित्र से ही सम्मान प्राप्त किया जाता है। सुगंधयुक्त फूलों में भी कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं!
सभी शास्त्रों में आचरण को ही श्रेष्ठ कहा गया है। सदाचार से धर्म का पालन होता है तथा धर्म के पालन से आयु बढ़ती है।

 

विद्याधनम्
विद्याधनम् धनं श्रेष्ठं तन्मलमितरद्धनम्।
दानेन वर्धते नित्यं न भाराय न नीयते।।
माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।
न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा।।

 

हिंदी अनुवाद

विद्यारूपी धन अन्य धनों से श्रेष्ठ धन है। यह दान देने से सदैव बढ़ता है, न यह भारी होता है, न चोरों द्वारा चुराया जा सकता है।
जो माता-पिता अपने बच्चे को विद्या नहीं पढ़ाते, वे उसके शत्रु होते हैं क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति सभा में उसी तरह सुशोभित नहीं होता जिस तरह हंसों के मध्य में बगुला।

 

मधुरा वाक्
प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति सर्वे जन्तवः।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।
वाणी रसवती यस्य यस्य श्रमवती क्रिया।
लक्ष्मी: दानवती यस्य सफल तस्य जीवितम्।।

 

हिंदी अनुवाद

मधुर वचन बोलने से सभी प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं, इसलिए ऐसे वचन ही बोलना चाहिए, वचनों में क्या दरिद्रता। जिस व्यक्ति की वाणी मधुर हो, कार्य परिश्रम से पूर्ण हो, जिसका धन दान देने में काम आता हो, उसी व्यक्ति का जीवन सफल है।

 

विद्वांसः
नास्ति यस्य स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण: किं करिष्यति।।
विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।।

हिंदी अनुवाद (Hindi Translation) – जिस व्यक्ति में अपनी बुद्धि नहीं है, शास्त्र उसका क्या उपकार करेंगे, जिस प्रकार आँखों से रहित व्यक्ति का दर्पण क्या उपकार करेगा।
विद्वान की तुलना राजा से नहीं की जा सकती। राजा तो अपने ही देश में पूजा जाता है, विद्वान सब जगह पूजा जाता है।

 

 

---------- इति ----------

 

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