पाठः - 2
बुद्धिर्बलवती सदा
पाठ-परिचयः
अस्ति देउलाख्यो ग्रामः। तत्र राजसिंहः नाम राजपुत्रः
वसतिस्म। एकदा केनापि आवश्यककार्येण तस्य भार्या बुद्धिमती पुत्रद्वयोपेता
पितुर्गृहं प्रति चलिता। मार्गे गहनकानने सा एकं व्याघ्रं ददर्श। सा
व्याघ्रमागच्छन्तं दृष्ट्वा धार्ष्ट्यात् पुत्रौ चपेटया प्रहृत्य जगाद-“कथमेकैकशो व्याघ्रभक्षणाय कलहं कुरुथः? अयमेकस्तावद्विभज्य भुज्यताम्। पश्चाद् अन्यो द्वितीयः
कश्चिल्लक्ष्यते।”
इति श्रुत्वा व्याघ्रमारी काचिदियमिति मत्वा व्याघ्रो भयाकुलचित्तो नष्टः।
निजबुद्ध्या विमुक्ता सा भयाद् व्याघ्रस्य भामिनी।
अन्योऽपि बुद्धिमाँल्लोके मुच्यते महतो भयात्।।
भयाकुलं व्याघ्रं दृष्ट्वा कश्चित् धूर्तः शृगालः हसन्नाह- “भवान् कुतः भयात् पलायितः?”
व्याघ्रः— गच्छ, गच्छ जम्बुक! त्वमपि किञ्चिद् गूढप्रदेशम्। यतो
व्याघ्रमारीति या शास्त्रे श्रूयते तयाहं हन्तुमारब्धः परं गृहीतकरजीवितो नष्टः
शीघ्रं तदग्रतः।
शृगालः— व्याघ्र! त्वया महत्कौतुकम् आवेदितं यन्मानुषादपि बिभेषि?
व्याघ्रः— प्रत्यक्षमेव मया सात्मपुत्रवेकैकशो मामत्तुं कलहायमानौ
चपेटया प्रहरन्ती दृष्टा।
जम्बुकः— स्वामिन्! यत्रास्ते सा धूर्ता तत्र गम्यताम्। व्याघ्र! तव
पुनः तत्र गतस्य सा सम्मुखमपीक्षते यदि, तर्हि त्वया अहं हन्तव्यः इति।
व्याघ्रः— शृगाल! यदि त्वं मां मुक्त्वा यासि तदा वेलाप्यवेला स्यात्।
जम्बुकः— यदि एवं तर्हि मां निजगले बद्ध्वा चल सत्वरम्। स व्याघ्रः
तथाकृत्वा काननं ययौ। शृगालेन सहितं पुनरायान्तं व्याघ्रं दूरात् दृष्ट्वा
बुद्धिमती चिन्तितवती—जम्बुककृतोत्साहाद्
व्याघ्रात् कथं मुच्यताम्? परं प्रत्युत्पन्नमतिः सा जम्बुकमाक्षिपन्त्यङ्गल्या
तर्जयन्त्युवाच-
रे रे धूर्त त्वया दत्तं मह्यं व्याघ्रत्रयं पुरा।
विश्वास्याघैकमानीय कथं यासि वदाधुना।।
इत्युक्त्वा धाविता तूर्णं व्याघ्रमारी भयङक्रा।
व्याघ्रोऽपि सहसा नष्टः गलबद्धशृगालकः।।
एवं प्रकारेण बुद्धिमती व्याघ्रजाद् भयात् पुनरपि
मुक्ताऽभवत्। अत एव उच्यते—
।।बुद्धिर्बलवती तन्वि सर्वकार्येषु सर्वदा।।
अनुवाद-
एक बार किसी
आवश्यक कार्य से उसकी पत्नी बुद्धिमती दोनों पुत्रों के साथ पिता के घर जा रही थी।
मार्ग
में घने वन में उसने एक बाघ देखा। उसने आते हुए बाघ को देखकर ढिठाई से दोनों
(पुत्रों) को थप्पड़ मारकर कहा- क्यों एक-एक बाघ खाने के लिए झगड़ा करते हो?
यह
एक तो बाँटकर खा लो। बाद में दूसरा देखते हैं। इस प्रकार सुनकर बाघ को लगा कि यह
कोई बाघ को मारने वाली है ऐसा मानकर भय से व्याकुल चित्त वाला बाघ भाग गया। वह
रूपवती स्त्री अपनी बुद्धि से बाघ के भय से मुक्त हुई। संसार में दूसरे बुद्धिमान
भी बड़े डर से मुक्त होते हैं। भय से व्याकुल बाघ को देखकर कोई धूर्त शृगाल हँसता
हुआ बोला- आप डर से कहाँ भाग रहे थे?
सियारः- जाओ जाओ शृगाल (सियार)।
तुम भी किसी गुप्त स्थान को।
क्योंकि बाघ को मारने वाली
(व्याघ्रमारी) जो शास्त्र में सुना जाता है,
उसके
द्वारा मैं मारा जाता। परन्तु मैं हथेली पर प्राण लेकर उसके आगे से शीघ्र भाग गया।
शृगालः- बाघ! तुम्हारे द्वारा
महान् आश्चर्य बताया गया जो (तुम) मनुष्य से भी डरते हो।
बाघ- मुझे खाने के लिए अपने झगड़ते
हुए पुत्रों को थप्पड़ से मारती हुई वह मेरे द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देखी गई।
शियार- स्वामी जहाँ वह धूर्ता है
वहाँ चलो। बाघ! यदि आपके पुनः वहाँ जाने पर वह सम्मुख दिखती है,
तो
मैं तुम्हारे द्वारा मारने योग्य हूँ।
बाघः- शृगाल! यदि तुम मुझको
छोड़कर जाते हो तब शर्त भी शर्त नहीं होगी।
वह बाघ वैसा करके वन में गया।
शृगाल के साथ फिर आए बाघ को दूर
से देखकर बुद्धिमति सोचने लगी- शृगाल द्वारा उत्साहित किए गए इस बाघ से कैसे छूटा
जाए?
परन्तु तुरन्त उत्पन्न हुई
बुद्धिवाली वह सियार पर आक्षेप लगाती हुई,
डाँटती
हुई बोली-
अरे धूर्त! तुम्हारे द्वारा पहले
मुझे तीन बाघ दिए गए। विश्वास दिलाकर आज एक लाकर कैसे जाते हो?
अब
बताओ!
इस प्रकार कहकर भयंकर
व्याघ्रमारी (बाघ को मारने वाली) शीघ्र दौड़ पड़ी। गले में बँधा सियार वाला बाघ भी
अचानक दौड़ पड़ा।
इस प्रकार
बुद्धिमती बाघ के डर से पुनः मुक्त हो गई।
अतः कहा गया है-
हे सुडौल स्त्री! हमेशा सब कार्यों में बुद्धिबलवती होती है।
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