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शुचि पर्यावरणम्

प्रथमः पाठः

शुचिपर्यावरणम्


पाठस्य प्रस्तावना

प्रस्तुत पाठ आधुनिक संस्कृत कवि हरिदत्त शर्मा के रचना संग्रह ‘लसल्लतिका’ से संकलित है। इसमें कवि ने महानगरों की यांत्रिक-बहुलता से बढ़ते प्रदूषण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा है कि यह लौहचक्र तन-मन का शोषक है, जिससे वायुमण्डल और भूमण्डल दोनों मलिन हो रहे हैं। कवि महानगरीय जीवन से दूर, नदी-निर्झर, वृक्षसमूह, लताकुञ्ज एवं पक्षियों से गुञ्जित वनप्रदेशों की ओर चलने की अभिलाषा व्यक्त करता है।


प्रथमः श्लोकः

दुर्वहमत्र जीवितं जातं प्रकृतिरेव शरणम्।

शुचि-पर्यावरणम्।।

महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्।

मनः शोषयत् तनुः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्।।

दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जनग्रसनम्।

शुचि...।।1।।

अन्वयः-

अत्र जीवितं दुर्वहम् जातं प्रकृतिरेव शरणम्। शुचि-पर्यावरणम् (भवेत्)। महानगरमध्ये अनिशं चलत् कालायसचक्रम् मनः शोचयत्। तनुः पेषयद् सदा वक्रम् भवति। अमुना दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनम् न एव स्यात्।


अनुवाद-

यहाँ जीवन कठिन हो गया है। प्रकृति ही शरण है। पर्यावरण शुद्ध हो। महानगरों में दिन-रात चलता हुआ लोहे  का पहिया मन को सुखाता हुआ, शरीर को पीसता हुआ, सदा टेढ़ा घूमता है। इसके भयानक दाँतों से मानव का विनाश नहीं हो।

 

द्वितीयः श्लोकः

कज्जलमलिनं धूमं मुञ्चति शतशकटीयानम्

वाष्पयानमाला संधावति वितरन्ती ध्वानम्।।

यानानां पङ्क्तयो ह्यनन्ताः कठिनं संसरणम्।

शुचि...।।2।।

अन्वयः- 

शतशकटियानम् कज्जलमलिनम् धूमं मुञ्चति। ध्वनाम् वितरन्ती वाष्पयानमाला संधावतिष हि यानानां अनन्ताः पङ्क्तयो संसरणम् कठिनम्।


अनुवाद-

सैंकड़ों मोटर, काजल-सा मलीन (काला) धुँआ छोड़ती हैं, कोलाहल बिखेरती हुई रेलगाड़ी की पंक्तियाँ दौड़ती हैं, गाड़ियों की अनन्त पंक्तियों में चलना कठिन है।

 

तृतीयः श्लोकः

वायुमण्डलं भृशं दूषितं न हि निर्मलं जलम्।

कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं समलं धरातलम्।।

करणीयं बहिरन्तर्जगति तु बहु शुद्धीकरणम्।

शुचि...।।3।।

अन्वयः-

हि भृशं दूषितं वायुमण्डलं निर्मलं जलम् न, कुत्सितवस्तुमिश्रितं भक्ष्यं, समलं धरातलं बहिः करणीयं अंतः जगति तु बहु शुद्धिकरणम्।


अनुवाद-

निश्चय ही अत्यधिक दूषित वायुमण्डल (है), निर्मल जल (भी) नहीं है। कुत्सित (रासायनिक इत्यादि) वस्तुओं से मिले हुए खाने के पदार्थ (हैं), गंदगी से भरी धरती को साफ-सुथरा करना चाहिए। संसार में अधिक शुद्धि करनी चाहिए।

 

चतुर्थः श्लोकः

कञ्चित् कालं नय मामस्मान्नगराद् बहुदूरम्।

प्रपश्यामि ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरम्।।

एकान्ते कान्तारे क्षणमपि मे स्यात् सञ्चरणम्। शुचि...।।4।।

अन्वयः-

अस्मात् नगरात् बहुदूरम् कञ्चित् कालं मां नय। ग्रामान्ते निर्झर-नदी-पयःपूरम् प्रपश्यामि। एकान्ते कान्तरे क्षणम् अपि मे संचरणं स्यात्।


अनुवाद-

हमारे नगर से बहुत दूर, कुछ समय के लिए मुझे दूर ले जाओ। गाँव की सीमा पर झरने, नदी और जलाशय देखता हूँ। क्षणभर भी एकांत (अकेले में) वन में मेरा घूमना हो अथवा चलना हो।

 

पञ्चमः श्लोकः

हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया।

कुसमावलिः समीरचालिता स्यान्मे वरणीया।।

नवमालिका रसालं मिलिता रुचिरं संगमनम्।

शुचि...।।5।।

अन्वयः- 

मे हरिततरूणां ललितलतानां माला रमणीया। समीरचालिता कुसुमावलिः वरणीया स्यात्। मिलिता नवमालिका रसालं रुचिरं संगमनम् स्यात्।


अनुवाद-

मेरे हरे पेड़ों की (और) सुन्दर लताओं की रमणीय माला चुनने योग्य है। हवा से चलाई गई (हिली हुई) फूलों की पंक्ति वरणीय है, मिली हुई नवमालिका और आमों का सुन्दर संगम हो।

  

षष्ठम् श्लोकः

अयि चल बन्धो! खगकुलकलरव गुञ्जिजतवनदेशम्।

पुर-कलरव सम्भ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम्।।

चाकचिक्यजालं नो कुर्याज्जीवितरसहरणम्।।

शुचि...।।6।।

 अन्वयः-

अयि बन्धो! खगकुलकलरव गुञ्जितवनदेशम् चल। पुर-कलरव संभ्रमितजनेभ्यो धृतसुखसन्देशम् चाकचिक्यजालम् जीवितरसहरणम् नो कुर्यात्।


अनुवाद-

अरे भाई! पक्षियों के समूह की आवाज से गुञ्जित वन प्रदेश में चलो। शहर के शोर से भ्रमित लोगों के लिए सुख-सन्देश  को धारण करो। चकाचौंध भरी दुनिया को जीवन के (आनन्द) रस को चुराना नहीं चाहिए।

 


सप्तम् श्लोकः

प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टाः।

पाषाणी सभ्यता निसर्गे स्यान्न समाविष्टा।।

मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्।

शुचि...।।7।।

 अन्वयः-

प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा पिष्टाः नो भवन्तु। पाषाणी सभ्यता निसर्गे समाविष्टा न स्यात्। मानवाय जीवनं कामये जीवनं मरणं न।


अनुवाद-

लता, पेड़ और झाड़ी पत्थरों के नीचे (तले) न पीसे हुए, पाषाणी (पथरीली) सभ्यता प्रकृति में खत्म न हो। साथ के लिए जिन्दगी की चाहत रखता हूँ, ना कि जीते जी मरना (चाहता हूँ)।

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